ज्योति कुमारी के नाटक पथ ही मुड़ गया का विमोचन सह परिवर्चा
सत्य प्रकाश
नई दिल्ली: युवा लेखिका ज्योति कुमारी की नाट्य पुस्तक पथ ही मुड़ गया का लोकार्पण समारोह के अध्यक्षीय संबोधन में ख्यातिलब्ध वरिष्ठ नाटककार प्रताप सहगल ने कहा कि ज्योति कुमारी के नाटक को पढ़कर वह कई दिनों तक डिस्टर्ब रहें। नायिका के जिस मनोदशा से गुजरती है, उसका इतना सजीव चित्रण है कि कई दिन तक मन भारी रहा। जिस दिन यह मंचित हुआ, उस दिन इसकी तीव्रता और ज्यादा होगी, क्योंकि मंच की ताकत और ज्यादा होती है। वह तुरत ज्योति से बात करना चाहते थे। उनके पास ज्योति का संपर्क नंबर नहीं था। पुस्तक पर भी नहीं था। जब कई दिनों तक यह नाटक उनके मन से नहीं उतरा तो प्रलेक प्रकाशन के प्रधान निदेशक जितेंद्र पात्रो से नंबर लेकर बात की।
अपनी देख-रेख में कई नाटक को अविस्मरणीय बना देने वाले श्री सहगल ने कहा, जब मैंने इसे नाटक के रूप में पढ़ना प्रारंभ किया तो मुझे नाटक नहीं लगा| आगे बढ़ा तो नाटक लगने लगा।इसे पढ़ते हुए उनके साथ ऐसा कई बार हुआ। कभी कहानी, तो कई बार उपन्यास की शक्ल अख्तियार कर लेता तो पुनः नाटक के रूप में मेरे मन-मस्तिष्क पर इसके दृश्य उमड़ने-घुमड़ने लगते। श्री सहगल ने कहा कि जो यह फ्रेमवर्क टूट रहा है, वह जान-बूझकर नहीं तोड़ा गया है | यह तोड़ना अनायास है | यह तोड़ना शायद कंटेंट के दबाव में है। वह बहुत जल्दी से जल्दी, पुख्ता तरीके से नायिका के दर्द को कह देना चाहती हैं| यही वजह है कि यह नाटक की शक्ल लेते-लेते, एक टीवी स्क्रिप्ट, वेब सीरीज या फिल्म की शक्ल में बदल जाता है तो कभी लगता है कि ये दृश्यों का एक कोलाज बनकर नजर के सामने खड़ा हो जाता है|
श्री सहगल ने कहा, अंततः नाटक को मंच पर आना होता है| यदि वह मंच पर नहीं आता तो रचना स्क्रिप्ट बनी ही रह जाती है, जैसे की कहानी की स्क्रिप्ट है, उपन्यास की स्क्रिप्ट है| कोई नाट्य कृति खुलती तभी है, जब वह मंच पर अवतरित होती है| मंच पर अवतरित होने के बहुत सारे घटक हैं। जब यह घटक रचना से जुड़ते हैं तो एक अलग रूप ही निखरता है| इस नाटक की घटनाएं पढ़ने में बेहद मार्मिक और संवेदनशील हैं। अगर यह दृश्यों में मंचित होगी तो इमोशंस और जबरदस्त मुखरित होगा। इसी कारण इसे कुशल निर्देशक और अभिनेता के बिना मंचित करने में काफी कठिनाई आएगी। इसके अलावा इतने बारीक स्तर पर चीजें चलती हैं कि इसे मंचित करना कठिन होगा|
श्री सहगल ने कहा कि यह नाटक अतीत में भी जाता है, वर्तमान में भी चलता है, जबकि मंचन के लिए जरूरी है कि चीजें वर्तमान में लिखी जाए। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि फ्लैश बैक के जरिये अतीत को दिखाया जा सकता है।
बता दें कि श्री सहगल ने उक्त बातें साहित्य अकादमी के सभागार कक्ष में युवा लेखिका ज्योति कुमारी की नाट्य पुस्तक पथ ही मुड़ गया के लोकार्पण सह परिचर्चा के अवसर पर अपने अध्यक्षीय भाषण में कही। उनके अलावा अतिविशिष्ट अतिथि और वक्ता के रूप में वरिष्ठ कथाकार एवं आलोचक महेश दर्पण, वरिष्ठ आलोचक प्रेम तिवारी तथा हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध पत्रिका पाखी के कार्यकारी संपादक पंकज शर्मा ने भी पुस्तक पर अपनी बात रखी| कार्यक्रम संचालन की जिम्मेदारी युवा कवि-संपादक संतोष पटेल ने निभाई तो धन्यवाद ज्ञापन प्रलेक प्रकाशन के प्रधान निदेशक जितेंद्र पात्रो ने किया| कार्यक्रम में कवि, आलोचक, पत्रकार के अलावा भारी संख्या में लोग उपस्थित थे। सभागार पूरा भरा होने के कारण कई साहित्य प्रेमियों को बैठने की भी जगह नहीं मिली।
परिचर्चा की विधिवत शुरुआत पाखी के संपादक पंकज शर्मा के वक्तव्य से आरम्भ हुई। इसमें उन्होंने पथ ही मुड़ गया नाट्य कृति की विशिष्टताओं और उद्देश्यों पर प्रकाश डाला| पंकज शर्मा ने विषय प्रवेश के रूप में रचना के भावपक्ष तथा शिल्पपक्ष पर अपनी बात रखते हुए कहा, परंपरा को देखते हुए स्त्री नाट्य लेखिकाएं नगण्य हैं| भारतेन्दु युग से लेकर प्रसाद यहां तक की आजादी पूर्व के सम्पूर्ण परिदृश्य में नाट्य लेखिकाएं बहुत कम हैं| आजादी के बाद मन्नू भण्डारी जैसी कुछ चुनिन्दा नाट्य लेखिकाएं अवश्य दिखाई देती हैं। ज्योति कुमारी इस जड़ता को तोड़ती दिखती हैं। इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं | पंकज शर्मा ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, बाल जीवन में हुए शारीरिक शोषण की मानसिक पीड़ा न सिर्फ पूरी उम्र दुःख देती है, बल्कि पीड़ित के पूरे व्यक्तित्व को पंगु बना देती है। पंकज शर्मा ने कहा कि मनोरोग की शिकार 18-19 साल की लड़की बचपन से खट-खट, चप-चप की आवाज से चिढ़ती है। इस कारण मानसिक पीड़ा झेलती यह लड़की आत्महत्या की नित नई-नई योजना बनाती है और रोज नई-नई कल्पनाएं करती है। मगर वह आत्महत्या नहीं करती। ज्योति कुमारी बहुत मैच्योर लेखिका हैं| वह चूक नहीं करती। यहां भी वह कोई चूक नहीं करतीं। नाटक की नायिका कल्पना भी चूक नहीं करती। वह आत्महत्या नहीं करती। यह इस नाटक की बड़ी उपलब्धि है|
पंकज शर्मा ने नाटक की विधा पर बात करते हुए कहा कि न सिर्फ इस नाटक का कंटेंट महत्वपूर्ण हैं, अपितु इसे जिस विधा में लिखा गया है, वह भी बेहद अहम है। ज्योति कुमारी ने इसे लिखते हुए सिर्फ कथ्य का ध्यान रखा है। उन्होंने विधा की जरा भी परवाह नहीं की है, उस विधा के रस्म को निभाने की औपचारिकताओं के फेर में पड़ीं। इस वजह से इस रचना में नाटक के कई तत्व मौजूद नहीं हैं। विधा भी टूटती दिखी है। इस नाटक को बहुत कम पात्रों तथा साधारण संवादों के जरिये आगे बढ़ाया गया है, मगर बेहद उल्लेखनीय तरीके से। जिसे साहित्य में लंबे समय तक याद रखा जाएगा। पंकज शर्मा ने अपने वक्तव्य का समापन इस बात से किया कि वह पुरजोर तरीके से यह मानते हैं कि ‘यह नाटक विचारोत्तेजक, प्रयोगधर्मी तो है ही, रचनात्मक भी है|
अगले वक्ता के रूप में किसी रचना को साहित्य की परंपरा, संवेदना, संस्कार और सारोकार में इजाफा के रूप में देखने के हामी आलोचक प्रेम तिवारी ने अपने वक्तव्य के शुरुआत में ही आए अतिथियों, श्रोताओं व पाठकों का ध्यान बेहद अहम बात की ओर दिलाया। उन्होंने कहा कि पुस्तक का समर्पण यौन उत्पीड़न की शिकार उन तमाम अबोध बच्चों-बच्चियों को, जिनका जीवन दूसरों के जुर्म की वजह से नारकीय हो गया है, को किया गया है। अमूमन इस तरह से अपनी रचना को कोई समर्पित नहीं करता है। इसी से लेखक के सारोकार का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि 29 दृश्यों में समेटी गई यह कहानी, हालांकि है तो नाटक, लेकिन पढ़ते वक्त यह कभी कहानी, कभी उपन्यास, संस्मरण आदि जैसे अलग-अलग विधाओं में प्रवेश कर जाती है। अगर दो टूक बोलूं तो यह पुस्तक एक ऐसी विधा में लिखी गई है, जो इससे पहले नहीं लिखी गई। हिंदी साहित्य से अब तक यह विधा विलुप्त ही थी। इस कारण इसका नामकरण किया जाना भी बाकी है।
प्रेम तिवारी नाटक विधा के टूटने का कारण इस नाटक के कंटेंट को मानते हैं | उनका मानना था कि यदि कहानी या उपन्यास के फॉर्मेट में इसे लिखा गया होता, तो मनोरोग की शिकार इस लड़की की कहानी लिखने के लिए काफी विवरणों की जरूरत होती| लेखक को कथा में अपनी तरह से जोड़ना पड़ता| इसलिए लेखिका ने कहानी और उपन्यास के तत्वों को लेकर इस कहानी को नाटक के दृश्यों में लिखा है, जो निश्चित रूप से एक नई विधा लगती है। और जब एक लड़की, लड़की की कहानी लिखेगी तो जाहिर है कि वह अलग तरीके से लिखेगी। न बंधे-बंधाए तरीके से, न ही बंधे-बंधाए फॉर्मेट में। वह तमाम जड़ताओं को तोड़ेगी। इस लिहाज से मुझे यह सफल रचना लगती है|
प्रेम तिवारी ने इस नाटक पर बात करते हुए कहा कि नाटक अस्तित्ववाद से शुरू हुई है, लेकिन यह उससे आगे की बात करती है। जीवन की सार्थकता की बात करती है। निस्सारता से बचाती है। अस्तित्ववादी विचारक सार्त्र के एक उपन्यास के हवाले से उन्होंने बताया कि उनका नायक भी आत्महत्या नहीं करता और ज्योति कुमारी के नाटक की नायिका भी आत्महत्या नहीं करती। उन्होंने कहा कि यदि नायिका आत्महत्या कर लेती तो निश्चय ही पुस्तक का साहित्यिक मूल्य कम हो जाता | वह कहते हैं कि नाटक में अकेलापन और एलियनेशन (अलगाव) भयानक है | पूंजी और औद्योगीकरण के आ जाने से यह आत्महत्या में बदल जाता है | उद्योग के रास्ते जो चीजें आयीं, उन्होंने लोगों के भीतर अलगाव पैदा कर दीं | नाटक की नायिका कल्पना को जो चीजे भौतिक जीवन में नहीं मिलतीं, उसे वह काल्पनिक जीवन में पाना चाहती है| वह प्रेम पाना चाहती है | नाटक के संदर्भ में कहते हैं, मैंने इसे पढ़कर यह सीखा कि हम हमारे आस-पास के लोगों से प्रेम नहीं करेंगे, उन्हें अपने हाल पर अकेला छोड़ देंगे तो लोग आत्महत्या करेंगे| इसकी एक चूक की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि 12वीं की छात्रा सार्त्र, कामू जैसे गंभीर विचारकों को पढ़ती है, लेकिन जिस रूप में चरित्र का विस्तार किया गया है, उसमें नायिका में पढ़ने की ललक या प्रवृत्ति नहीं दिखती।
अपनी बात को समायोजित करते हुए प्रेम तिवारी ने कहा कि साहित्य की परंपरा, संवेदना और संस्कार में इजाफा के रूप में देखने पर यह कृति खरी उतरती है| संवेदना के स्तर पर यह हमें समृद्ध करती है | अंत में वह यह कहना नहीं भूले कि इससे पहले हिन्दी में ऐसी, इस या इस तरह के विषय पर उन्होंने कोई कहानी, नाटक, उपन्यास आदि कुछ नहीं पढ़ा है|
वरिष्ठ कथाकार और आलोचक महेश दर्पण ने इन सभी पहलुओं पर अपनी बात रखते हुए कहा कि वह इसके कथ्य और शिल्प को बहुत संजीदगी और गंभीरता से रखते हैं| लेखिका की रचना को पढ़ने के बाद उनका मानना है कि लेखिका खतरे उठाना जानती हैं| इनमे वह सलाहियत है कि रचना के लिए नयी बात के साथ, नये तरीके के साथ, नयी भाषा के साथ, नये ख़्वाब के साथ अपनी बात कह सकें | महेश दर्पण ने कहा कि यह नाटक है, लेकिन परंपरागत नहीं। वह इस नाट्य कृति को ओपन स्क्रिप्ट के रूप में देखते हैं| यह निर्देशक को आजादी देता है कि वह अपनी मर्जी से चीजें तय कर सके। जैसे टेबल कहां रखना है। बैकग्राउंड सीन क्या होगा आदि।
महेश दर्पण का मानना है कि लगभग सभी साहित्यिक विधाओं ने अपने फॉर्म को तोड़ा है, कहानी ने तोड़ा है, उपन्यास ने तोड़ा है तो नाटक में टूट गया तो क्या बड़ी बात हो गई| श्री दर्पण ने नाटक के माध्यम से सामाजिक ताने-बाने पर भी प्रहार किया। उन्होंने कहा, यह नाटक बताता है कि हम लोग जिस समाज में जी रहे हैं, वो दरअसल कितना गल चुका है। कितना सड़ चुका है। कितना दिखावटी और नाटकीय है। हम सच को सच की तरह स्वीकार ही नहीं करते | हम यह स्वीकार ही नहीं करते की परिवार के भीतर एक बच्चा असुरक्षित हो सकता है! हम लोग यह स्वीकार ही नहीं करते कि बड़े लोग ख़राब भी हो सकते हैं! हम यह स्वीकार ही नहीं करते की मनुष्य के दिमाग में एक शैतान बैठा है!
अध्यक्षीय वक्तव्य से पहले लेखिका ज्योति कुमारी ने पथ ही मुड़ गया ने कहा, जब वह तनाव में होती हैं या परेशान होती हैं, तो साहित्य उन्हें बचा ले जाता है| आगे कहा, हमारा समाज लड़कियों के प्रति अब भी सहज नहीं हो पाया है| वह लड़कियों को उसी फ्रेम में देखना चाहता है जो सदियों से बना आ रहा है कि लड़की को ऐसे रहना चाहिए| अब क्योंकि लड़कियां उस फ्रेम को तोड़ रही हैं तो समाज हम लड़कियों को दो ही रूपों में बांटता है या तो हम अच्छी लड़की हैं या बुरी लड़की हैं | मतलब या तो हम ब्लैक हैं या ह्वाइट | ग्रे शेड हमारे लिए नहीं है, वह मर्दों के लिए है | मर्द किसी के लिए अच्छे या किसी के लिए बुरे हो सकते हैं, किन्तु हम तो समाज के लिए या तो अच्छे हैं या बुरे हैं | मगर सच यह है कि ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं है, जो पूरी तरह ह्वाइट हो या पूरी तरह ब्लैक हो, वह ग्रे होता ही होता है | कुछ कॉम्प्लेक्सेज सबके अंदर हैं| कुछ बुराइयां, कुछ कमियां, हम सब के अंदर हैं | लेखिका ने डेटा के माध्यम से बताया, बाल यौन शोषण से लगभग 50 प्रतिशत बच्चे को किसी न किसी रूप में गुजरना पड़ता है|
बातचीत में अपनी रचना के लिए इस तरह की शैली क्यों चुनी, पर लेखिका ने कहा कि लेखक वही अच्छा होता है, जो किसी शैली में बंधकर नहीं लिखता। वह खुद को पात्रों के हवाले कर देता है। पात्र खुद अपनी भाषा और शैली तय कर लेते हैं। लिखते वक्त भी मैं जान रही थी कि विधा टूटी है। मैंने तोड़ा है, लेकिन अगर मेरे पात्र यह मांग करते हैं तो मैं आगे भी ऐसा करुंगी। नाटक को आधार बनाकर साहित्य की कई विधाओं का प्रयोग मैंने इसे लिखने में किया है। यह एक नया प्रयोग है। मैं आलोचना की विद्यार्थी नहीं, इसलिए यह अलग विधा है या नाटक यह आलोचक तय करेंगे। मेरे लिए यह विधा पात्रों की मांग थी। बस।
शशि सहगल ने कहा कि जब उन्होंने ज्योति के इस नाटक को पढ़ा तो सच है कि उन्हें यह पसंद नहीं आया था और उन्होंने प्रताप को यह कहा भी। लेकिन उसके बाद यह लगातार मुझे हॉन्ट करता रहा, तब मैंने यह भी प्रताप से शेयर किया तो उन्होंने कहा कि यही तो रचना और लेखिका की कामयाबी है।
सभी वक्ताओं और श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि उन्होंने 2018 में लेखिका का कहानी संग्रह दस्तखत तथा अन्य कहानियां उन्होंने पढ़ी थी। तब से वह ज्योति कुमारी को ढूंढ़ रहे थे। बहुत मुश्किल से वह सोशल मीडिया पर उनसे संपर्क साधने में कामयाब हुए और उसके बाद वह उनका यह नाटक लेकर आए।